हकीम लुकमान के पास भी नहीं है किसान आंदोलन का समाधान

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-01-05 02:58:44


हकीम लुकमान के पास भी नहीं  है किसान आंदोलन का समाधान

बड़े बुजुर्ग कह गये है कि शक की दवा तो हकीम लुकमान के पास  भी नहीं है. यानि आशंकाओं को दूर तभी किया जा सकता है जब सुनने वाले खुले दिल से सुनें. किसान आंदोलन भविष्य की आशंकाओं की नींव पर खड़ा है. इसे गरीबों, शोषितों और कम से लेकर ज्यादा शिक्षित लोगों को भरमाने के लिये जाने जाने वाले कम्युस्टिों ने रचा है. इनके मनोविज्ञान को पढ़ने समझने में इनकी मास्टरी है. वे बेहद जटिल कल्पनाओं को भी अत्यंत सरल तरीके से लोगों के गले उतार देते हैं. कृषि सुधार के तीन  कानून और न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी जैसे विषय को उन्होंने पंजाब और हरियाणा के किसानों के गले ‘यस और नो’ के नारे के साथ उतार दिया है. तीनों कानूनों को वापस लो, एमएसपी पर खरीदी कानूनी तौर पर अनिवार्य करो की मांगों को कानूनों को वापस लो में समेटकर  रख दिया है. आठवें दौर की 4 जनवरी की बातचीत के बाद नेताओं ने कहा पहले कानूनों की वापसी पर चर्चा बाद में ओर कोई बात. सरकार बातचीत के माध्यम से उनके रूख को नरम कर चर्चा के लिये राजी करना चाहती है. पर बात नहीं की जिद कायम है. सरकार ने एमएसपी के हल के प्रस्ताव मांगे और कहा कि सोचने को समय दो तो टका सा जवाब और कितना समय दोगे? इसलिये सरकार ने भी कहा कि ताली दोनों हाथ से बजती है. तुम्हारी यही जिद है तो हमारा भी पक्ष यही है कि कानूनों की वापसी नहीं पर संशोधन सुझाओ, बात करो और समझौते पर पहुंचो. एमएसपी पर क्या कानून हो उस पर प्रस्ताव दो, विचार करने का समय दो? करीब तीन चार घंटे इसी की रट और मनाने रूठने में गुजर गये. आखिर सरकार ने कहा कि बात तो करोगे? जवाब था करेंगे तो तपाक से 8 जनवरी की तारीख तय हो गई.
लेकिन 8 जनवरी को क्या होगा यह तो उनकी बात करने की सहमति के बाद की बात  से ही तय हो गया. कानून कैसे खत्म होंगे सिर्फ इसी पर चर्चा होगी. एमएसपी को बाद में देख लेंगे.
कानून कैसे खत्म होंगे सिर्फ इसी पर चर्चा होगी. एमएसपी को बाद में देख लेंगे.  यह पूर्व शर्त  ही कम्युनिस्टी एजेंडा है जो दुनियाभर में परिदृश्य से गायब हो रहे कम्युनिस्टों के भारत में भी सिमट कर गायब होने की प्रक्रिया को रोकने की कोशिश भर है. इसका किसानों की मांगों से कोई लेना देना नहीं है. यह तो बहलाने फुसलाने में उनकी कला की महारत का नमूना जो किसानों को भीषण ठंड में सड़कों पर डटे रहने के लिये राजी कर रहा है. किसान  नेता  तो मजे में हैं और गरीब किसान इसके आदी हैं इसलिये आंदोलन चल रहा है. जो किसान असमय कालकवलित हो रहे हैं जरा उनका ब्यौरा तो सामने लाइये, कितने किसान दो चार एकड़ वाले छोटे किसान है जो अपनी दम पर अपनी जमीन पर खेती कर रहे हैं? इनमें से ज्यादा तर वे निकलेंगे जिनकी जमीनें दूसरे किसानों ने किराये पर ले रखी है और वे अपनी ही जमीन पर मजदूरी कर रहे हैं.
बातचीत का नतीजा तब निकलेगा जब सरकार भी कहेगी कि आवश्यक  वस्तु अधिनियम में संशोधन कर भंडारण की सीमा खत्म करने में दो हेक्टेयर के किसान को क्या नुकसान है? देश के खजाने से पैसा लेकर खरीदा गया अनाज बड़ी मात्रा में खराब हो जाता है, उसे कोई निजी कंपनी की मदद से गोदाम बनाकर बचा ले तो दो हैक्टेयर  के किसान का क्या जाता है? ऐसे किसान 90 फीसदी हैं जो इस बात को बताएंगे तो समझ जाएंगे कि आंदोलन के नाम पर किसानों के कंधे पर बंदूक रख आंदोलन कर रहे नेताओं के मन में क्या बेईमानी है? उनकी नजर किसानों की भलाई पर नहीं मोदी सरकार को गिराने की राजनीति पर लगी है.
समर्थन मूल्य पर सिर्फ छह फीसदी किसानों की फसलें जाती हैं. इनमें दो हेक्टैयर वालों को तलाशें तो बमुश्किल एक फीसदी निकलेंगे. दो हेक्टेयर वाले तो 90 फीसदी हैं उनमें से एक फीसदी के लिये बाकी 89 फीसदी की बलि क्यों? अगर इनकी औने पौने दामों पर जाती फसल को कोई व्यवसायी या कंपनी अच्छे दाम देकर खरीदे तो एमएसपी पर बेचने वाले छह फीसदी किसानों का क्या जा रहा है?
बाकी मंडियों की बात और एमएसपी पर बाद में बात कर लेंगे इस विकल्प को देने में सरकार को क्या परेशानी है. सिर्फ किसानों के एजेंडे पर ही बात क्यों? सरकार की तरफ से कृषि मंत्री तोमर ने सही कहा है ताली तो दोनों हाथों से बजती है. फिलहाल तो लग रहा है कि 8 जनवरी को भी  देशा ताली की आवाजें शायद ही सुन पाएगा.

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