बिहार में नीतीश-भाजपा के बीच फिलहाल युद्धविराम

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-01-05 00:20:15


बिहार में नीतीश-भाजपा के बीच फिलहाल युद्धविराम

- भावी प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षा मारने लगी है हिलोरें
बिहार में भाजपा के पास एक मजबूरी यह है कि उसके पास जातीय समीकरण के लिहाज से नीतीश कुमार जैसा कोई मजबूत और कद्दावर नेता नहीं है. इसलिये उसे नीतीश कुमार के सामने बार बार झुकना पड़ता है. नीतीश कुमार की मजबूरी यह है कि उनकी पार्टी कभी भी इतनी सीटें नहीं पा सकी हैं कि वह एक नबंर की पार्टी बनकर गठबंधन में आएं. वे दूसरे नंबर की पार्टी ही बन पाते हैं और इन दिनों तो उनका नंबर तीसरा है. वहीं आज भी उनके पास विकल्प तो अनेक हैं पर कोई भाजपा जैसा विश्वसनीय और संयम रखने वाला विकल्प नहीं है. इसलिये न चाहकर भी वे भाजपा के साथ हैं.
भाजपा के साथ गठबंधन में नीतीशकुमार इस चुनाव से पहले बड़े भाई थे और अपनी मनमानी करते रहते थे. अब छोटे भाई बनकर भी उसी प्रकार की मनमानी की इच्छा रखते हैं. भाजपा बदनामी के भय और विकल्प की कमी के कारण झेल रही है.
नीतीशकुमार के खिलाफ भारी एंटीइंकंबेंसी की चर्चा चुनाव के समय थी क्योंकि उन्होंने जातीय राजनीति साधने के अलावा कुछ नहीं किया था. फिर अप्रत्याशित रूप से तेजस्वी यादव उभर कर आ गये. चिराग पासवान ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रहा था. उनके पिता रामबिलास पासवान के नक्शेकदम पर वे थे. उनको भाजपा ने उतनी मजबूती से रोका नहीं. पर ऐन चुनाव के समय ज्यादा कुछ नीतीश कुमार कुछ कर नहीं पा रहे थे. परिणामों ने बताया कि उन्होंने नीतीशकुमार का काम लगाने में कोई कमी नहीं छोड़ी जिससे बड़े भाई साइज में कटकर छोटे भाई बन गये. उधर  भाजपा अपने संगठन के बल पर करीब दोगुनी बड़ी सहयोगी भाई बन गई और बड़े भाई की भूमिका में आ गई.
राजनीति की कलाबाजियों के चलते तेजस्वी को ओबेसी ने जम कर चोट पहुंचाई. कांग्रेस का तो बैंड ही बजा दिया. इसके कारण तेजस्वी की पार्टी एक नंबर पर पहुंचने के बाद भी बहुमत वाला महागठबंधन नहीं बना सकी.
इस बारे में गठबंधन के दाव भारी पड़े और उसकी सरकार बन गई. पर सकरकार की जान तो नीतीशकुमार की मुट्ठी में थी. इसलिये वादे की याद दिलाकर नीतीश को गद्दी पर बिठाया, नीतीश नानुकुर का नाटक करते हुए सिंहासन पर काबिज हो गये. विधानसभा अध्यक्ष को लेकर भाजपा ने अपनी चलाई तो नीतीश झुक गये. पहले छोटे मंत्रीमंडल में संख्या को लेकर भाजपा ने अपनी बताई तो एक हद तक नीतीश मान गये.
पर आगे के लिये वे अपने पुराने रवैये पर आ गये हैं. उनको लेकर लालू ने अपनी चालें बदली हैं. वे नीतीश पर नरम पड़ गये हैं. निशाने पर लालू को ले लिया है. मीडिया ने भी नीतीश के पुराने रवैये को बेहद आत्मसम्मानी और समझौता न क रने वाला, दृढ निश्चियी तथ अडिग, सख्त बता कर चढ़ा दिया है. इसके चलते वे भी पुराने मूड में लौट आये हैं. उनका कहना है कि मंत्रियों की संख्या और उनके विभाग में वे किसी की नहीं सुनेंगे. सुना जा रहा है कि वे लोकसभा चुनाव में भी जब अड़े थे तो आधी आधी सीटों लेने के बाद ही शांत हुए थे. कहा जा रहा है कि वे छोटे भाई होने के बाद भी मंत्रियों की संख्या आधे आधे से ज्यादा करने से कम पर राजी नहीं हैं. नीतीश कुमार ने यह भी बता दिया है कि विधान परिषद के चुनाव में भी बात आधी आधी सीटों पर ही बन पाएगी. इन बातों पर करीब करीब समझौता हो भी गया है.
पर यह एक तरह का अस्थाई युद्धविराम है. राजनीतिक गोटियां बिठाने के लिये भी उन्होंने अपने को फ्री कर लिया है. राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर आरसीपी सिंह को बिठाने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी से जदयू में आये राष्ट्रीय प्रवक्ता नीरज कुमार को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर रहे हैं. अरूणाचल प्रदेश में जदयू के छह विधायकों के भाजपा में आने की चोट को सहलाकर वे चुनौती देने की मुद्रा  में आ गये हैं.
वे अब जातीय समीकरणों के साथ साथ विकास पर  भी उसी प्रकार जोर देंगे जैसे मोदीजी दे रहे हैं. ताकि जब भी उन्हें विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश किया जाए तो उनका ट्रेक रिकार्ड उनका सपोर्ट करे. अरूणाचल के झटके के बाद उनका लक्ष्य बिहार से बाहर दूसरे प्रदेशों में जदयू का विस्तार रहेगा. ऐसा वह पहले भी करते रहे हैं. बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन में होने के बाद भी वे अलग रहकर झारखंड में चुनाव लड़ चुके हैं. जानकार मान रहे थे कि बिहार में जदयू की जो गति हुई उसे देखकर वे वहां पार्टी को मजबूत करेंगे पर अब यह काम आरसीपी सिंह और नीरज कुमार सहित दूसरे नेता करेंगे. वे देश में दूसरे राज्यों में जदयू का विस्तार करेंगे. दिल्ली उनकी नजर में है ही और बंगाल को लेकर वे अपने इरादे बता ही चुके हैं. बिहार में जो जातीय समीकरण हैं उनका लाभ शेष भारत में भी वे उसी प्रकार से उटाने की सोच रहे हैं जैसे ओबेसी मुस्लिम वोट बैंक को लेकर कर रहे हैं.
इसकी जड़ में उनकी मोदी जी और भाजपा से पुरानी अदावत है. हालात को देख वे थोड़ा नरम पड़े थे पर अब वे फिर टकराने को तैयार हैं क्योंकि उनके पास खोने को कुछ नहीं है. लगता है जरूरत पड़ने पर वे बिहार को अपने बड़े भाई लालू के पुत्र तेजस्वी को सौंपने की हद तक भी जा सकते हैं. क्योंकि लालू यादव ही हैं जिन्होंने आडवाणी का रथ थामा था और आज तक एक बार भी भाजपा से समझौता नहीं किया है. पुरानी कहावत है दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है. इसी राह पर शायद नीतीश कुमार चल निकले हैं.
नीतीश की कमजोरी से निकाला अरूणाचल
अरूणाचल प्रदेश में सात में से छह  विधायकों के जदयू से भाजपा में आने से देश की राजनीति में भूचाल सा आ गया था. पर  सधे-पके घाघ नेता की तरह उपर ही उपर से उसे जो हो गया सो हो गया कह कर टालते रहे. पर दूसरे जदयू नेता किसान आंदोलन से लेकर पुराने सभी मामलों पर भाजपा को आड़े हाथों लेते रहे. वहां के हालात को समझने के लिये यह जानना  काफी है कि दल बदल करने वाले कई विधायकों में कई ऐसे थे जो वहां चुनाव से पहले भाजपा का टिकट चाहते थे. पर जब भाजपा ने मौका नहीं दिया तो वे जदयू के पास गये और उसने सहारा दे दिया. जनता के बीच उनके समीकरण सधे हुए थे इसलिये जीत गये. जदयू ने उनकी और खास ध्यान नहीं दिया जिसकी ज्यादा जिम्मेदारी राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते नीतीश कुमार की थी. उधर वे मोदीजी के विकास कार्यक्रमों से प्रभावित होते रहे. मुख्यमंत्री प्रेमा खांडू ने भी उन पर कृपा बरसाने में कोई कमी नहीं की. इससे प्रभावित होकर वे भाजपा में आ गये. इस बात की जानकारी जदयू से भाजपा में गये एक विधायक ने साक्षात्कार में की है. वहीं जदयू में बचे एक विधायक ने भी कहा है कि इन्होंने अपना नेता कब बदल लिया भनक तक नहीं लगने दी. जब वे दल बदल कर भाजपा में चले गये तब सबको पता चला. उसने जदयू हाईकमान को सारी रिपोर्ट दे दी है. देखते हैं वह क्या करता है. फिलहाल तो भाजपा हाईकमान चुप सा ही है. पर नीतीश कुमार को शायद अपनी गलती का अहसास हो गया है इसलिये वे तेजी से संगठन  में बदलाव कर रहे हैं.      

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