सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय में होगा किसान आंदोलन का फैसला

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-01-02 06:52:24


सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय में होगा किसान आंदोलन का फैसला

मैंने पहले भी कहा था उसे नये साल में फिर दोहराना चाहता हूं कि किसान आंदोनल का फैसला सुप्रीम कोर्ट में ही होगा. छह जनवरी से सुप्रीम कोर्ट में कानूनी जंग भी नजर आने लगेगी. सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ही कोई तरीका सुझाएगी जिसे सबको मानना होगा. कमेटी बनते ही किसानों को दिल्ली की घेराबंदी छोड़ अपने घरों को जाना होगा. हो सकता है यह लोहड़ी के पहले ही हो जाए. और किसान दिल्ली की बार्डर की बजाय अपने घरों में भांगड़ा डालें.
तीनों किसान कानूनों के कट्टर विरोधी भी जानते हैं कि आर्थिक और तार्किक आधार पर इन कानूनों का विरोध संभव नहीं है. यह भी वे मानते हैं कि आज उनमें कोई बुराई नहीं बताई जा सकती पर भविष्य के लिहाज से ये गलत हैं. यानि विरोध का आधार काल्पनिक और काफी हद तक भावनात्मक है.
कट्टर समर्थक जानते हैं कि राजीव गांधी का कम्प्यूटर के प्रति आग्रह, नरसिंहराव के आर्थिक सुधार तात्कालिक तौर पर लोकप्रियता के खिलाफ और वोटबैंक की राजनीति के हिसाब से बेहद नुकसानदायी थे और रहे पर दूरगामी लिहाज से वे देश की प्रगति और समय के साथ चलने में सहायक रहे. उनसे देश आर्थिक दिवालिया होने से बच गया. इसी प्रकार ये तीनों कानून भी देश को समय के साथ प्रगति की राह में बढने बढ़ने और आर्थिक दिवालियापन से बचाने के माध्यम हैं. पर तत्कालिक रूप से वोटबैंक की राजनीति के खिलाफ हैं.
लेकिन नरेन्द्र मोदी के रूप में देश को ऐसा नेता मिला है जो देशहित के दूरगामी लाभ के लिये यह खतरा मोल ले सकता है. और वह ले रहा है. इसलिये इनकी वापसी की उम्मीद तो किसी को करनी ही नहीं चाहिये. हां समयानुकूल संशोधनों से पर बात हो सकती है. वह करने  को तैयार मोदीजी तैयार हैं.
एमएसपी बनी रहे. वह बनी रहे इसको कानूनी तौर पर दर्ज करने के लिये सरकार तैयार सी है लेकिन उससे कम पर सरकार और सरकारी एजेंसी न खरीद करे इसे भी कानून में दर्ज कराने के लिये वे तैयार हो सकते हैं. सरकारी मंडियों को खत्म नहीं किया जाएगा इसे भी कानून में लाने की बात हो सकती है. उसके लिये भी सहमति की गुंजाइश है. निजी मंडियों को सरकारी निगरानी और उनमें समान  कर लगाने पर  भी सरकार सहमति दे चुकी है.
लेकिन एमएसपी से कम पर निजी या किसी भी तरह की  खरीद को अपराध बना दिया जाए इसका कानूनी प्रावधान  हो इसके लिये मोदीजी की सरकार ही नहीं कोई भी सरकार तैयार नहीं हो  सकती यह देश को दिवालिया बनाने वाला कदम कोई सरकार नहीं उठा पाएगी.
भंडारण में निजी भागीदारी पर आपत्ति को बहस में नहीं टिकाया जा सकता. विरोध काल्पनिक है. आवश्यक वस्तु अधिनियम  में संशोधन भी समयानुकूल है. इसे बहस में साबित किया जा सकता है. फिर लिमिट ही तो खत्म की गई है. यह तब बनाया गया था जब अनाज की कमी थी. कालाबाजारी को रोकना था. आज वह समस्या नहीं है और जब आती है तो फिर लिमिट लाई जा सकती है क्योंकि कानून को खत्म  नहंीं किया गया है, संशोधित किया गया है.
कृषि कानूनों का विरोध राजनीतिक है. इसकी आड़ में मोदीजी को सत्ता से हटाना है. इनकी आड़ में भाजपा का देश में राजनीतिक फैलाव रोकना है.  यह विपक्षी दल नहीं कर पा रहे हैं इसलिये किसानों के कंधों पर बंदूक रखी गई है.
अंत में चलते चलते इस राजनीतिक टिप्पणी को भी दोहराना चाहता हूं कि सिर्फ छह प्रतिशत फसल ही एमएसपी पर खरीदी जाती है. देश के कुल किसानों का दो फीसदी किसान ही इस लाभ को लेते हैं. बाकी 98 प्रतिशत वंचित रहते हैं. इन दो फीसदी किसानों के लिये मोदीजी के भेजे गये छह हजार रूपये साल की कोई अहमियत शायद न  हो, उनके दो चार दिन के खर्च के बराबर हो पर 98 प्रतिश्.त किसानों के लिये यह डूबते को तिनके का सहारा है जिसके चलते वे डूब नहीं पा रहे हैं. सब तरह से सुरक्षित और आंनददायी जहाजों में बैठे किसानों का शायद तिनके का कितना सहारा होता है उसका अंदाज न हो. पर याद  रखें विलासिता और सब प्रकार की सुरक्षा से सज्जित टाइटेनिक जहाज भी डूबा था.

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