सुप्रीम कोर्ट ने किसान आंदोलन को हड़पने वालों की निकाल दी हवा

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2020-12-16 23:16:31


सुप्रीम कोर्ट ने किसान आंदोलन को हड़पने वालों की निकाल दी हवा

किसान आंदोलन एक याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा तो कल 16 दिसंबर को पहली सुनवाई में ही सुप्रीम कोर्ट के सुझाव पर आंदोलन को हाईजैक यानि हड़पने वालों की हवा निकल गई. अब उनमें से अधिकांश अप्रत्यक्ष तौर पर अपनी भड़ास मीडिया पर खासकर सोशल और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर निकाल रहे हैं. कोई अदालत के दायरे पर सवाल उठा रहा है तो कोई उसके तौर तरीकों पर. अप्रत्यक्षतौर पर अदालत का सरकार के प्रति झुकाव लगाने वाले तो हमेशा की तरह बेहद आक्रामक हैं.
अदालत में याचिका थी कि दिल्ली की सीमाएं किसान आंदोलनकारियों ने सील कर दी है इसलिये उन्हें हटवाया जाए.
याचिकाकर्ताओं की तरफ से यह समझाने की कोशिश की गई कि किसानों ने और उनके सीमाएं सील कर देने से दिल्ली की जनता परेशान हो रही है. पूर्व के उदाहरणों से यह भी बताने की कोशिश की गई कि ऐसे मामलों में अदालत के क्या निर्देश हैं? लेकिन अदालत ने इस दलील को यह कह कर खारिज कर दिया कि कानून व्यवस्था का हर मामला अलग होता है इसलिये पूर्व के मामलों को इसमें उदाहरण के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता.
तब यह सवाल केन्द्र में आया कि सीमाएं किसने रोकी हैं? और क्यों रोकी हैं? तथा क्यों रूकी हुई हैं?
तब जो बहस हुई तो कहा गया कि सरकार ने रोकी हुई हैं. किसान तो दिल्ली में जाना चाहते हैं पर सरकार ने बेरिकेड्स लगा कर रोक दिया है.
इस पर लंबी बहस चली और अदालत को लगा कि वार्ता में गतिरोध के कारण यह रोक लंबी खिंच रही है. इसी पर अदालत ने कहा कि वार्ता के लिये क्यों न एक कमेटी बना दी जाए जो इस मामले को वार्ता कर सुलझाए,?
इस बीच सरकार की तरफ से भी कहा गया कि वह चाहती है कि कानूनों पर एक एक धारा लेकर चर्चा की जाए और समाधान निकाला जाए.
लेकिन किसान पक्ष तो था नहीं, मामले में कई राज्यों की सीमाएं भी लगने के कारण उन्हें शामिल करने पर सहमति बनी और उन्हें नोटिस जारी कर दिया गया. किसान पक्ष था नहीं इसलिये सरकार से कहा गया कि वह सूची दे. किसानों का पक्ष रखने आंदोलनकारियों को 17 दिसंबर को अपना पक्ष रखने का निर्देश अदालत ने दे दिया.
बताया जा रहा है कि सरकार ने पांच किसान यूनियनों के नाम अदालत को दिये हैं.
अब यह अदालत का मामला आ गया और सक्रियता का एक और मोर्चा मीडिया पर खोलने का अवसर मिल गया है. क्योंकि सरकार तो चाहती ही थी कि कोई कमेटी बन जाए जिसमें सरकार और आंदोलनकारियों के प्रतिनिधि तथा विशेषज्ञ रहें. जो समाधान निकले वे लागू कर दिये जाएं. यह बात दूसरी तीसरी बैठक में ही सामने आ गई थी जिसे आंदोलनकारी ठुकरा चुके थे और सरकार ने इस पर भी जिद नहीं की. लेकिन अब तो सामने अदालत थी और आंदोलनकारियों से जवाब मांगा जा रहा था. अगर वे राजी हो जाएं तो सरकार की पहली जीत प्रतीत होती है. मना कर दें तो यह आंदोलनकारियों की हार की शुरूआत जैसी लगती है.
मीडिया के माध्यम से यह कहना शुरू कर दिया कि यह अदालत का काम नहीं है कि समस्या का समाधान निकाले और उसके लिये कमेटियां बनाए. वह तो याचिका पर फैसला देने तक सीमित रहे और जो याचिकाएं कृषि कानूनों को लेकर लंबित हैं उन पर फैसला सुनाए. इसमें वे समग्र क्रांति आंदोलन तक का उदाहरण तक दे रहे हैं जिसमें भी इस प्रकार का निर्देश नहीं आया था.
अब देखना यह है कि 17 दिसंबर को मामला किस तरह से आगे बढ़ता है.    
सही नतीजे पर पहुंचने के लिये इस घटनाक्रम और पूर्व के घटनाक्रम को एकसाथ देखकर विचार करना जरूरी लगता है. उसके बाद तो साफ दिखता है कि किसानों की घोषणा दिल्ली को घेरने की थी, सीमाएं सील कर देने की थी. उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार जहां भी रोकेगी वहीं वे रूक जाएंगे और आंदोलन शूरू कर देंगे. सरकार ने कानून व्यवस्था का हवाला देकर या कहें आड़ लेकर उन्हें हरियाणा की सीमा पर ही रोकने का पूरजोर प्रयास किया. यहां तक कि सड़कें खोद दी, साधारण बेरिकेट्स के साथ सीमेंट तक  के बेरिकेट्स लगा दिये. फोर्स तो खैर लगाई ही.
पंजाब से किसान हरियाणा सीमा पर आए तो उन्हें रोका गया. उन्होंने बेरिकेट्स पार करने की कोशिश की तो पानी की तेज बौछार भी की गई. लेकिन वे नहीं रूके. हरियाणा के अपने सहयोगियों के माध्यम से वे बड़ी संख्या  में आगे निकल आए और बाद में ट्रेक्टरों से सीमेंट सहित सारे बेरिकेट्स तोड़ दिये और दिल्ली की सीमा पर आ गये. और यहां शांतिपूर्वक रूक गये और उन्होंने दिल्ली में प्रवेश के सारे रास्ते सील कर दिये.
इससे साफ है कि वे वादे के मुताबिक वहां नहीं रूके थे जहां उन्हें पहले रोका गया था जैसा की उनका वादा था. उनका इरादा दिल्ली को ही सील करने का था जिसमें वे सफल रहे.
सरकार ने उन्हें बुराडी के मैदान में जाने को कहा जहां उनके लिये पूरी व्यवस्थाएं की गई थी. लेकिन उसे खुली जेल बता कर ठुकरा दिया. वे रामलीला मैदान में जाना चाहते थे जहां के लिये सरकार तैयार नहीं थी. फिर गिरफ्तारियों को  लेकर भी समस्या थी क्योकि केजरीवाल सरकार ने अस्थाई जेल बनाने के लिये पांच स्टेडियम देने से इंकार कर दिया था. इसके पीछे भी उनकी राजनीति थी जो उन्होंने बाद में बताई भी.
सरकार ने आंदोलनकारियों को दिल्ली सीमा पर ही रोके रखा. दिल्ली की जनता परेशान होती रही.
तब वार्ता का प्रस्ताव रखा गया. नानुकुर कर वे राजी हुए. सरकार ने बातचीत शुरू की और कि वे अपनी आपत्तियां लिखित में दें. 37 आपत्तियां दी गई. सरकार ने एक एक आपत्ति  पर बात शुरू की और आश्वासन देना प्रारंभ कर दिया. एमएमसी 50 साल से जिस प्रकार से चल रही है वह चलती रहेगी. फिर भी वह यह लिखकर देने को तैयार है कि इसे नहीं हटाया जाएगा. पेनकार्ड पर कोई भी भोले अनपढ़ किसानों की लाखें की उपज खरीद कर भाग जाएगा, तो सरकार ने कहा कि ठीक है खरीददारों का पंजीयन कराया जाएगा, बात आई मंडियों तो कहा गया कि सरकार मंडी पर तो टैक्स है, निजी पर नहीं तो यह बराबरी नहीं  है, इससे सरकारी मंडियां धीरे धीरे बंद हो जाएंगी, सरकार ने कहा कि जो टेक्स सरकारी मंडी पर है वह निजी पर भी लगाएंगे, कांट्रेक्ट फार्मिंग में सरकार ने सुनवाई एसडीएम तक सीमित कर दी है और किसान का अदालत में जाने का रास्ता रोक दिया है तो सरकार ने कहा ठीक है किसान अदालत में भी जा सके इसका भी विकल्प दे देंगे,
तब किसान नेताओं को लगा कि उनकी मोदी को घेरने की दूरगामी योजना विफल हो रही है और उन्होंने जिद पकड़ ली कि अब बात तभी होगी जब तीनों कानून खत्म कर देंगे. क्योंकि इतने सारे संशोधनों से तो बेहतर रहेगा कि इन्हें खत्म कर दें और नया कानून बातचीत के बाद लाया जाए. उसे संसद में पारित कराया जाए.
यह दाव राजनीतिक था क्योंकि राज्यसभा का हंगामा ऐतिहासिक था. इस पर सरकार नहीं मानी और बातचीत अगली बैठक दो दिन बाद की तय कर खत्म कर दी गई.
दिलचस्प बात यह है कि सरकार ने बातचीत के आग्रह के अलावा कोई चैनल किसान आंदोलन को लेकर नहीं खोला. आंदोलन कदम दर कदम सघन होता  चला गया, कभी मोदी, अदाणी, अंबानी के पुतले जलाने तो कभी धरना प्रदर्शन तो भारत बंद तक चला. माहौल को सरकार के विपरीत जाते देख मोदीजी ने वाराणसी में अपने भाषण में इन कानूनों के पक्ष में बोल कर पहली बार सरकार का इरादा जताया कि वह इन पर अड़ी हुई है. सरकार की तरफ से कहा गया कि वह सुधारों के लिये तैयार है. भारत बंद के बाद और वार्ता की पूर्व संध्या पर गृहमंत्री अमित शाह ने बैठक बुलाई और सरकार से बात कर रहे आंदोलनकारियों के प्रतिनिधियों में से कम सख्या में प्रतिनिधियों को आने को कहा. बातचीत चली लेकिन पूर्ण वार्ता की तरह यह वार्ता भी इस नतीजेे पर खत्म हो गई कि सरकार आपत्तियों का जवाब और प्रस्ताव आंदोलनकारियों तक भेज दे. वे विचार कर आगे का रास्ता तय करेंगे कि वार्ता कब होगी. इसमें शाह ने साफ कर दिया था कि कानून तो वापस नहीं होंगे.
आंदोलनकारियों ने सरकार का प्रस्ताव पढ़ा और एकसिरे से खारिज कर पुरानी मांग दोहरा दी कि पहले तीनों कानूनों को रद्द करो फिर ही बात होगी अन्यथा नहीं. उन्होंने कहा कि वे छह माह तक यहां बैठै रहेंगें और सीमाएं भी सील रहेंगी. कुछ समय सरकार ने इंतजार किया औरा फिर कानूनों के पक्ष में और आंदोलनकारियों तथा आंदोलन स्थलो पर हो रही गड़बड़ियों को उछालना शुरू कर दिया. देश में किसानों के पांच सौ रजिस्टर्ड संगठन और यूनियनें हैं. वे सभी आंदोलनकारियों के साथ दिखती है लेकिन कानूनों की एक तरह से समर्थक भी हैं. वे चाहती हैं कि बातचीत हो और संशोधनों के साथ ये कानून बने रहें. सरकार ने इन्हें भी सामने लाना शुरू कर दिया. इन सबसे आंदोलनकारी और पर्दे के पीछे से इसका संचालन कर रहे लोग कमजोर पड़ने लगे. उन्होंने सरकार पर उन्हें बदनाम करने और आंदोलन में फूट डालने का आरोप लगाना शुरू कर दिया.
सारा संदर्भ और कहानी बताने का आशय यह है कि मोदी विरोध की जिद और उन्हें नीचा दिखाने की जिद के कारण ही किसानों के कंधे पर रख कर बंदूकें दागी जा रही थी. ये बंदूक दागने वाले एक्सपोज होने लगे थे जिससे वे बैचेन थे. आंदोलन टकराव की ओर बढ़ रहा  था और हिंसक होने का  डर भी बढ़ रहा था. ऐसा होने पर इसका खत्म  होना तय था.
तभी यह अदालत का मामला आ गया और सक्रियता का एक और मोर्चा खोलने का अवसर मिल गया. क्योंकि सरकार तो चाहती ही थी कि कोई कमेटी बन जाए जिसमें सरकार और आंदोलनकारियों के प्रतिनिधि तथा विशेषज्ञ रहें. जो समाधान निकले वे लागू कर दिये जाएं. यह बात दूसरी तीसरी बैठक में ही सामने आ गई थी जिसे आंदोलनकारी ठुकरा चुके थे और सरकार ने इस पर भी जिद नहीं की. लेकिन अब तो सामने अदालत थी और आंदोलनकारियों से जवाब मांगा जा रहा था. अगर वे राजी हो जाएं तो सरकार की पहली जीत प्रतीत होती है. मना कर दें तो यह आंदोलनकारियों की हार की शुरूआत जैसी लगती है.
मीडिया के माध्यम से यह कहना शुरू कर दिया कि यह अदालत का काम नहीं है कि समस्या का समाधान निकाले और उसके लिये कमेटियां बनाए. वह तो याचिका पर फैसला देने तक सीमित रहे और जो याचिकाएं कृषि कानूनों को लेकर लंबित हैं उन पर फैसला सुनाए. इसमें वे समग्र क्रांति आंदोलन तक का उदाहरण तक दे रहे हैं जिसमें भी इस प्रकार का निर्देश नहीं आया था.   

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