खेती में निजीकरण, कारपोरेटीकरण तथा सेफ्टीनेट बन चुके हैं अनिवार्यता

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2020-12-14 22:47:12


खेती में निजीकरण, कारपोरेटीकरण तथा सेफ्टीनेट बन चुके हैं अनिवार्यता

बहुत हल्ला है कि किसान से सस्ते में लेते हो और बाजार में महंगा बेचते हो. उससे ज्यादा हल्ला है कि किसान और व्यापारी से कारपोरेट्ा सस्ता लेते हैं और उसे प्रोसेस करके यानि चिप्स आदि बना कर महंगा बेचते हैं.
पर इसका दोषी कौन?
जी किसान और व्यापारी. साथ ही सरकार भी.
सरकार सबसे ज्यादा दोषी है क्योंकि दो हेक्टेयर वाले 85 फीसदी किसानों की हैसियत नही है कि वह अपनी उपज को रोक सके. यह हैसियत तो महंगी खेती के चलते अब शायद दस हैक्टेयर वाले किसानों में भी नहीं बची है. सरकार को चाहिये कि वह जिस प्रकार बुआई के समय खाद बीज आदि के लिये खातों में पैसे डालने की बात करती है उसी प्रकार से किसानों को उनकी उपज गोदाम में रखने के लिये मदद दे. गोदाम में रखी उपज पर नगद सबसीडी और ऋण दे. फसल रोकने पर अगर दाम गिरे तो इस बात की गारंटी दे कि वह भरपाई करेगी. इससे किसान की ताकत बढ़ेगी और आने पौने दामों पर उपज का बिकना रूकेगा. लेकिन इतने गोदाम हैं कहां. तो गोदाम निर्माण निजी क्षेत्र को आने दे, वैसे ये हैं लेकिन जरूरत के मुकाले न के बराबर. इसीतिये कारपोरेट्स के आने का जो रास्ता सरकार खोल रही है .उसका विरोध किसान बंद करें.
अब बात किसान, व्यापारी और आलू चिप्स की. यह काम अभी कारपोरेट्स और बड़े व्यापारी ही कर रहे हैं. लेकिन इस  काम से किसानों और छोटे व्यापारियों को रोक कौन रहा है? तो जवाब है पूंजी और तकनीकी की कमी. यहीं सरकार फिर दोषी मिलती है. वह इसके लिये इनकी मदद करे. उन्हें सबसीडी और कर्ज दे. ताकि वे भी आलू चिप्स और दूसरी चीजें बना कर बेच सके. यही सरकार करना चाहती है. इसलिये सरकार को निजी और कारपोरेट्स के लिये वैकल्पिक व्यवस्था के लिये प्रायवेट मंडी और गौदामों का रास्ता खोलना पड़़ा है. वह एमएसपी का लिखित आश्वासन भी देेने को तैयार है. इसके बाद तो अब किसानों को आंदोलन  खत्म कर देना चाहिये.
सरकार का फसल डायवर्सिफिकेशन और दाल दलहन और आइल सीड्स तथा नगद फसलों पर जोर देना सही कदम है. लेकिन यह काम किसानों पर दबाव देकर नहीं हो सकता. इसके लिये उन सारे विदेशी समझौतें से बाहर निकल कर इन चीजों का आयात रोकना होगा या नियंत्रित करना पड़ेगा. जो किसान इन उपजों को पैदा करे इसके लिये सबसीडी, पुख्ता फसल बीमा और ज्यादा एमएसपी पर जोर देना होगा. अनाज और धान के भंडार तो अकेले पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश ही भर देते हैं. जहां ये इच्छित फसलें हो सकती है वहां सरकार को ध्यान देना होगा. इससे सरकार का आयात बिल घटेगा. सरकार पर किसानों का दबाव भी कम होगा. जितना हम भंडारण कर पाते हैं उससे ज्यादा कृषि उपज बर्बाद होती है. उसे कारपोरेट्स की खरीद और उनके गोदामों के माध्यम से बचाया जा सकेगा. उसका निर्यात भले ही न हो पाए  या कम हो पर देश के भंडार तो भरे रहेंगे. हम भी पीएल 480 की तरह गरीब मित्र देशों की मदद कर उनका विकास करेंगे और विदेश नीति को मदद भी मिलेगी.
किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे बुद्धिजीवियों, एनजीओ आदि से मेरा कोई विरोध नहीं है. उन्हें जहां गलत लगे वहां उन्हें विरोध करना ही चाहिये. न ही राजनीतिक दलों के विरोध से कोई शिकायत है. क्योंकि वे तो बने ही सरकार का विरोध करने के लिये हैं. लेकिन एनजीओ और बुद्धिजीवियों को सरकारों की यह  मजबूरी समझना चाहिये कि सरकार अपने खर्चो और गरीब वर्ग की कल्याण योजनाओं के खर्चो के आर्थिक बोझ तले इतना दबी है कि वह विकास के लिये पैसा निकाल ही नहीं पा रही है. कर्मचारी और गरीबों की कल्याण योजनाओं में कटौती संभव नहीं है. तो वह विकास के लिये निजीकरणण की ओर न जाए तो क्या करे? जरा देखिये जो भी सरकार में आया उसे इसी निजीकरण की राह पर चलना पड़ा. फिर वे वामदल रहे हों या कांग्रेस, सपा, बसपा या दूसरे दल. सरकार में सहभागी बने तो उन्हें इसका मौन समर्थन करना ही पड़ा जैसे अकाली दल. इसकी राजनीतिक कीमत भी राजनीतिक दलों ने चुकाई है. वामपंथी दल  हो या चन्द्रा बाबू नायडू इसके उदाहरण हैं. वामदलों ने बंगाल तो नायडू ने आंध्र में यह कीमत चुकाई है. इसलिये देशहित में बुद्धिजीवियों और एनजीओ को निजीकरण और कारपोरेट्स का विरोध छोड़ कर उन सेफ्टी नेट्स संबंधी उपायों को सुझाने पर ध्यान देना चाहिये. ये अपनाए जाएं इस पर सिविल सोसायटी को जोर डालना चाहिये.

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