बहकती जुबानों की वापसी

Category : आजाद अभिव्यक्ति | Sub Category : सभी Posted on 2020-10-19 06:53:48


बहकती जुबानों की वापसी

बहकती जुबानों की वापसी
- राकेश अचल, वरिष्ठ पत्रकार, ग्वालियर
राजनीति में मर्यादा अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है। अब राजनीति में मर्यादा को छोड़कर सब कुछ है .बल्कि मध्यप्रदेश में हो रहे विधानसभा उपचुनावों और बिहार विधानसभा के चुनावों में बहकती जुबानों की वापसी फिर होती दिखाई दे रही है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के उम्रदराज नेता कमलनाथ ने एक महिला पूर्व मंत्री को आयटम कह कर इसके संकेत  दे दिए हैं। राजनेताओं की बहकती जुबानें अमर्यादित ही नहीं अपितु आपत्तिजनक भी हैं।
नेताओं की जुबान बहकने का सिलसिला नया नहीं है। 2014  के पहले से ये जुबानें  बहकती आयीं हैं लेकिन 2014 के बाद तो अति हो गयी है। मैं बहकती जुबानों के अतीत में नहीं झांकना चाहता। मुझे यकीन था कि भाजपा केंद्र की सत्ता में आने और कांग्रेस सत्ता से बाहर जाने के बाद आत्मशुद्धि की और बढ़ेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। इन राजनीतिक दलों की भाषा का संकेत तो इनके प्रवक्ताओं की जुबान से मिल जाता है। बहरहाल बात मध्य्प्रदेश के थ्री इन वन नेता कमलनाथ की है।
वे कांग्रेस के संजय गांधी युगीन नेता हैं। कमलनाथ 73 साल के हैं। इस लिहाज से उनके पास तजुर्बे की कमी नहीं है। कमी है तो शब्दकोश की। उन्होंने एक दिन पहले प्रदेश की पूर्व मंत्री श्रीमती इमरती देवी के बारे में जो कहा है उसे सुनकर एक आम आदमी होने के नाते मै आहत हूँ। इमरती देवी ग्वालियर के डबरा आरक्षित विधानसभा क्षेत्र से चैथी बार की विधायक हैं और दूसरी बार की मंत्री।उन्होंने हाल ही में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा है। माना कि इमरती देवी उच्च शिक्षित नहीं हैं लेकिन इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं है कि आप उन्हें आयटम कह दें। कांग्रेस के एक वरिष्ठ सदस्य ने कमलनाथ का ये कहकर बचाव किया कि इमरती ने भी कमलनाथ को करुआ यानि काला कहा था।
मेरा कहना है कि अगर 45 साल की इमरती मर्यादा भंग करती हैं तो 73 साल के कमलनाथ को ये हक नहीं मिल जाता कि वे भी शब्दों से किसी महिला का चीरहरण करें। कमलनाथ अनुभवी हैं, वरिष्ठ हैं और एक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने से पहले वर्षों केंद्रीय मंत्री रहें हैं। उनसे ये अपेक्षा की जा सकती है कि वे संविद पात्रा जैसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करेंगे, लेकिन अफसोस कि उन्होंने ऐसा किया। उनका वीडियो सुनकर मुझे ऐसा लगा कि जैसे उनके अन्दर अभी भी संजय गांधी युग का प्रभाव मौजूद है। बहरहाल मेरे मन में कमलनाथ को लेकर जो सम्मान भाव था उसमें कमी आई है। जब तक कमलनाथ अपने कहे पर शर्मिंदगी जाहिर नहीं करते ,ये दरार भरने वाली नहीं है।
मेरी समझ में अब तक नहीं आ रहा कि सियासत में चुनावों के समय ये बदजुबानी कहाँ से आ जाती है। पूर्व में मैंने जैसे पात्रा जी का जिक्र किया उसी तरह मै इस संदर्भ में मणिशंकर अय्यर का भी जिक्र करना चाहूंगा। यानि सबकी दशा,मनोदशा एक जैसी है। राजनीति में शुचिता और भाषाई सौजन्य लगता है हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो गया है। यदि ऐसा ही चला तो निकट भविष्य में राजनीति में टपोरियों की भाषा ही बोली जाएगी। इसे सप्रयास रोका जाना चाहिए अन्यथा राजनीति का बहुत अहित हो जाएगा।
चुनावों के समय बात मुद्दों की होना चाहिए। किसी के रंग, रूप की नहीं, चरित्र की नहीं। दुर्भाग्य से अब मुद्दों की तो बात कोई करता ही नहीं है। सब मुद्दों से इतर बातें करते हैं और करते ही चले जाते हैं। अब राजनीति में बदजुबानी और विदूषकों जैसा अभिनय करने की होड़ मची है। कोई मंचों पर लमलेट हो रहा है तो कोई नृत्य करता दिखाई दे रहा है। गाम्भीर्य का तो जैसे अता-पता नहीं है। ऐसे में मुझे याद आते हैं पुरानी पीढ़ी के वे नेता जो भाषा पर अपना पूरा नियंत्रण रखते थे। दूर न जाएँ तो इसी प्रदेश में स्वर्गीय अर्जुन सिंह जब बोलते थे तब हमेशा एक टेप रिकार्डर सामने रखते थे ताकि जो बोलें उसे बाद में प्रमाणित किया जा सके। उनके पास अपशब्द तो जैसे थे ही नहीं। वे अभिनय कला से कोसों दूर थे। वे तो मुस्कराते भी बड़ी कंजूसी से थे। चुनावी सभाओं में भी उनके मुंह से कभी कोई लच्छेदार भाषण नहीं निकलता था।
मैंने संजय गांधी युगीन दूसरे कांग्रेस के नेताओं को देखा है जो अत्यंत समृद्ध भाषा का इस्तेमाल करते थे। शुक्ल बंधुओं को याद कीजिये। जनसंघ और भाजपा तो भाषा के मामले में बाजपेयी  युग तक समृद्ध रहा। लालकृष्ण आडवाणी और उनके बाद सुषमा स्वराज भी अपवादों को छोड़ हमेशा भाषा के मामले में गाम्भीर्य का प्रदर्शन करती थीं लेकिन अब तो एक से बढ़कर एक सूरमा हर दल में मौजूद हैं जो भाषा की धज्जियां उडा़ने में समर्थ हैं। ऊपर से नीचे तक सब कमोवेश एक जैसे नजर आ रहे हैं। जो इस मामले में पीछे हैं वे शायद अब किसी काम के नहीं रहे। राजनीति में ये दादा कोंडके के संवादों का अनिष्टकारी युग है।
अभी चुनावों में कुछ समय है, कोई एक पखवाड़े तक देश की जनता को पता नहीं कैसे-कैसे अप्रत्याशित भाषण सुनने पड़ेंगे। केंद्रीय चुनाव आयोग के पास इस संघातक बीमारी का कोई इलाज है नहीं। अदालतों में जाओ तो महीनों क्या वर्षों लग सकते हैं फैसला आने में, संसद अब भाषाई शिक्षा का केंद्र रही नहीं। ऐसे में ये जिम्मेदारी उन सबकी है जो नेताओं को नाथना जानते हैं या ऐसा करने में समर्थ हैं।
राजनीति को टपोरियों की भाषा से मुक्ति दिलाने का अभियान राजनीतिक नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक अभियान बनाया जाना चाहिए। जिसको जहां टोके जाने की जरूरत है। टोका जाये, रोका जाये, निंदा की जाये, दबाब डाला जाये। अगर आप ये सब कर सकें तो आप अपने राष्ट्र की,अपने राष्ट्र की राजनीति की संस्कृति की,सभ्यता की बड़ी सेवा कर सकते हैं। यह आलेख भावनात्मक ज्यादा है, इसलिए मुमकिन है कि आपको पसंद न आये, लेकिन आज सवाल पसंद और नापसंद का नहीं बल्कि भाषा का है। आप इस आलेख को सराहें या न सराहें, आलोचना करें या न करें लेकिन इस विषय पर कुछ क्षण के लिए चिंतन  अवश्य करें।

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