काले अंग्रेजों का हिंदी विरोध. 13 अप्रैल.

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-04-12 22:35:14


काले अंग्रेजों का हिंदी विरोध. 13 अप्रैल.

महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई के दौरान जिन बातों पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया वह थी भाषा. बुनियादी तालीम मे ं उन्होंने मातृभाषा में शिक्षा पर जोर दिया तो देश की सभ्यता और संस्कृति, परंपराओं के संरक्षण के लिहाज से तमिल, तेलगु, कन्नड, मलयालम, मराठी, बंगाली, पंजाबी, आदि भारतीय भाषाओं में सृजन पर जोर दिया. वहीं राष्ट्रीय एकता के लिये हिंदी को चुना. उसके प्रचार प्रसार के लिये दक्षिणी, पूर्वी पश्चिमी और उत्तरी राज्यों में अपने सहयोगियों को भेजा. क्योंकि हिंदी ही ऐसी भाषा थी जो देश में सबसे ज्यादा समझी, बोली और लिखी जाती थी. जिन भाषाओं की अपनी लिपि थी उनके संरक्षण पर बल दिया. हिंदी सहित बाकी के लिये देवनागरी लिपि को अपनाने को कहा.
लेकिन महात्मा गांधी ने कभी भी अंग्रेजी के पक्ष में कुछ नहीं कहा. उसे विश्व से संपर्क या भारत में संपर्क के लिये कभी जरूरी नहीं बताया. बल्कि आजादी के तुरंत बाद दिये गये इंटरव्यू में साफ कहा कि दुनिया को बता दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है.
संविधान में  भी हिंदी को प्राथमिकता दी गई और उसे राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करने पर जोर दिया.
हिंदुस्तान एक बहुभाषी देश है यहां अनेकों भाषाएं, बोलियां और लिपियां प्रचलन में हैं. इसलिये सभी को संविधान में स्थान दिया. एक सूची बनाई गई जिनमें समय समय पर विभिन्न बोलियों और भाषाओ को जोड़ा गया.
आजादी के बाद जब भाषा की बात व्यवहारिक तौर पर उठी तो माहौल में राजनीति और क्षेत्रवाद हावी हो गया. इन सबके उपर था वह धनीमानी और एलिट क्लास जो अंग्रेजों के समय अंग्रेजी की दम पर मलाई चाटता रहा और आजाद भारत में भी उसी को प्राथमिकता मिली. इसलिये उसने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिये अंग्रेजी को सर्वोच्च स्तर पर बनाए रखने मेें पूरी ताकत लगा दी. नतीजन हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर माना स्वीकारा तो गया पर उसे यह नाम न देकर राजभाषा कहा. साथ ही राज्यों में आपसी और केन्द्र से संपर्क लिये एक अलग भाषा के लिये जगह बनाई. वह भाषा थी अंग्रेजी. उसे राष्ट्रीय संस्थानों जैसे सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट, संसद आदि में सर्वोच्च स्थान दिया.
आजादी के बाद से ही अलग अलग हिस्सों में अपनी अपनी भाषाओं को प्राथमिकता की मुहिम चली और बाद में तो राज्यों के गठन और पुनर्गठन का आधार ही भाषा को बनाया गया.
नतीजा यह निकला कि पहले अंग्रेजी को संपर्क भाषा का दर्जा देने से हिंदी कमजोर पड़ी तो राज्यों में अपनी भाषाओं को महत्ता दिलाने की मुहिम से हिंदी और कमजोर हुई. बाद में दक्षिणी राज्यों ने अपने को अलग बताने के चक्कर में तमिल को प्रधान भाषा मानते हुए आंदोलन चलाया जो एक तरह से हिंदी के खिलाफ था. इसे धार देने के लिये कहा गया कि हम हिंदी को थोपेे जाने के खिलाफ हैं. साठ के दशक में एक उग्र और हिंसक आंदोलन  तक दक्षिण राज्यों सहित कई राज्यों में चला. इसने हिंदी को एकदम रसातल तक लेजाने का रास्ता खोला.
सरकारी स्तर पर न सही, हिंदी की अपनी ताकत थी, नतीजन वह आगे बढ़ती गई. और देश में सर्वाधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा बनी रही.
इस भाषाई आंदोलन का लाभ भारतीय भाषाओं को तो कम हुआ पर अंग्रेजी को भरपूर मिला. लार्ड मेकाले का सपना अंग्रेज तो पूरा नहीं कर पाए पर उन हिंदुस्तानियों  ने पूरा किया जिसे मैकाले ने काला अंग्रेज कहा था. वह नौकरियों के साथ साथ उच्च  शिक्षा का माध्यम बनी. धीरे धीरे अधकचरे स्वरुप में नर्सरी तक आ गई.
इस बीच लोहिया समर्थकों ने अंग्रेजी के विरोध में आंदोलन चलाया. पर वह उत्तरी राज्यों तक ही सीमित रहा. लेकिन जनमानस ने महसूस किया कि इससे उनकी शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. अंग्रेजी न जानने के कारण कामकाज और  नौकरियों के अवसर कम हुए हैं. इस प्रकार अंग्रेजी को एक तरह से योग्यता का पैमाना बना दिया गया और यह देश और समाज में स्थापित भी हो गया.
पर अंग्रजी के प्रभुत्व को हाल में पहली चोट नई शिक्षा नीति में दी गई जिसमें कहा गया कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रहेगा. दूसरी कक्षा के बाद उसका एक सहायक भाषा के तौर पर प्रवेश हो सकेगा. मिडिल क्लासों से यानि छठवीं से ही अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम बनाई जा सकेगी. हालांकि अभी तक अंग्रेजी को लेकर ज्यादा स्पष्टता नहीं है क्योंकि नई शिक्षा नीति कोरोना के प्रकोप व दूसरे कारणों से पूरी तरह से लागू करने में ज्यादा समय लग रहा है. उसके पूरा लागू होने के बाद ही पता चलेगा कि काले अंग्रजों ने इसमे भी कहा तक चालाकियां कर अंग्रेजी की प्रधानता बनाए रखने में सफलता पाई है.
पूरे देश में विभिन्न सरकारी विभागों में राजभाषा विभाग हैं जो हिंदी दिवस मनाते हैं. हिंदी का सरकारी काम में प्रचलन बढ़ाने के लिये इन्हें बनाया गया है. पर ये सब  अन्य सब सरकारी कामों की तरह ही कागजी ज्यादा हैं. राजभाषा को लेकर संसद और विधानसभाओं में राजभाषा समिति बनाई जाती है जो सरकारी कामों में हिंदी के प्रचार प्रसार पर नजर रखती है. ताजा विवाद राजभाषा पर बनी संसदीय समिति की बैठक में गृहमंत्री अमित शाह के दिये गये संबोधन से उपजा है जिसमें कहा गया है कि राज्यों को अब आपसी संवाद के लिये हिंदी पर जोर देना चाहिये. यानि संपर्क भाषा अंग्रेजी का उपयोग कम करने का संदेश अमित शाह ने दिया है.
इससे अंग्रेजी समर्थकों के कान खड़े हो गये और अंग्रेजी मीडिया सहित सेमिनारों आदि में जोर जोर से चिल्ला  चिल्ला कर  कह रहे हैं कि देश के शांत माहौल में फिर साठ के दशक के हिंसक हिंदी विरोध के जिन्न को बाहर लाने की चेष्टा की जा रही है. इससे देश का माहौल बिगड़ेगा. शाह को ऐसा कहने की कतई जरूरत नहीं थी. वहीं हिंदी विरोधियों ने भी जिनमें तमिलनाडु और केरल सबसे आगे हैं क्योंकि इसमें वे अपना राजनीतिक लाभ देखते हैं.
फिलहाल तो अमित शाह कुछ बोल कर चुप हो गये है और हिंदी समर्थकों ने भी ज्यादा शोर उनके बयान को लेकर नहीं मचाया. नतीजन अंग्रेजी समर्थक और हिंदी विरोधी भी थक हार कर चुप हो गये हैं.
लेकिन यह सही समय है जब हिंदी के बारे में सोचा जाए. हिंदी को अंग्रेजी के खिलाफ खड़ा करने की गलती मेरी नजर  में नहीं दोहराई जानी चाहिये. बल्कि हिंदी की उपयोगिता कैसे बढ़े इस पर जोर देना होगा. हिंदी कैसे  ज्ञान विज्ञान की भाषा बने. देश विदेश में संपर्क की भाषा बने इस पर ध्यान देना होगा. दक्षिण भारत में भले  ही हिंदी का विरोध है. लेकिन काम धंधे, नौकरी, व्यापार व्यवसाय के लिये आया दक्षिण भारतीय जरूरत समझ कर किस प्रकार से तेजी से हिंदी सीख लेता है इस ओर ध्यान दिया जाए. भारतीय भी जरूरत के मुताबिक भारतीय भाषाएं सीखें. तो यह हिंदी का यह  विरोध कम होगा. देश की शिक्षा में त्रिभाषा फार्मूला लागू किया गया तो उत्तर भारत ने चालाकी से हिंदी अंग्रेजी के साथ तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत को अपना लिया. इस चालाकी ने हिंदी को अपार नुकसान पहुंचाया. दक्षिण भारतीयों ने भी अंग्रेजी के साथ दो अपनी ही भाषाएं जोड़ ली इससे हिंदी को जो अवसर वहां मिलना था वह नहीं मिल पाया.
देश को यह बताने की जरूरत है कि अंग्रेजी भाषा जानना एक अतिरिक्त भाषा की योग्यता हो सकती है पर वह ज्ञान और योग्यता का पैमाना कदापि नहीं है. यदि अंग्रेजी ज्ञान और योग्यता का पैमाना होती तो अंग्रेज तो दुनिया में सबसे ज्यादा ज्ञानी  और योग्य होते. पर ऐसा नहीं है. आज भी दो चार दर्जन देशों में ही अंग्रेजी बोली और समझी जाती है. ब्रिटेन या अमेरिका में जितने लोग अच्छी सटीक और साफ सुथरी अंग्रेजी लिख पाते हैं या बोल पाते हैं उनसे कहीं ज्यादा लोग हिंदुस्तान में अच्छी शुद्ध साफ सुथरी अंग्रेजी बोलते और लिखते हैं. आशय यही है कि अंग्रेजी पूरी दुनिया में कहीं भी ज्ञान और योग्यता का पैमाना नही है. भारत इसका अपवाद था और फिलहाल है. पर भविष्य में ऐसा नहीं रहे इस बारे में सोचने समझने और प्रयास करने की जरूरत है. ज्ञान और योग्यता का पैमाना हिंदी सहित भारतीय भाषाएं बनें वह स्वर्णिम दिन आएगा यह तय है. कितनी जल्दी आएगा यह हमारे प्रयासों और मानसिकता पर निर्भर करता है. मैं कहता हूं  कि गांधी जी की तरह देश का आम और खास आदमी जिस दिन कहने लगेगा कि दुनिया को बता दो कि मैं (हम) अंग्रेजी नहीं जानते हैं उसी दिन यह आ जाएगा. 

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