नोट - ध्यान रखें यह अप्रैलफुल समाचार नहीं है.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीशकुमार राजनीति के चतुर सुजान खिलाड़ी हैं. मोदी के खिलाफ उन्होंने काफी समय बगावत का झंडा उठाए रखा पर आज वह उनके प्रिय लोगों की सूची में हैं. बिहार में भाजपा ने सब जानते बुझते भी उन्हें अपने साथ बनाए रखा. नीतीशकुमार न चाहते हुए भी बड़े भाई से छोटे भाई बन गये. उसमें भाजपा का ज्यादा दोष नहीं है यह वह जानते हैं. वह यह भी जानते हैं कि भाजपा की उन्होंने जब जब बांह मरोड़ी वह सह गई. जब भी दबाव डाला वह झुक गई. चिराग पासवान ने नीतीशकुमार की पार्टी जदयू को तीसरे स्थान पर खिसका दिया इसमें भाजपा का हाथ है यह नीतीशकुमार को छोड़ सब कहते रहे. उसके बाद भी वे चुप रहे. भाजपा ने वादे का हवाला देकर नीतीशकुमार को मुख्यमंत्री बनवा दिया. वे तब इसके लिये ज्यादा उत्सुक नहीं है यह दिखाते रहे पर कुर्सी पर बैठ गये. पहले जैसी मनमानी तो नहीं कर पाए पर ज्यादा कमी भी नहीं रखी. भाजपा चुप बनी रही.
लगता है नीतीशकुमार ने खुद ही बदलाव के लिये कदम उठाने का तय कर लिया है. इसलिये वह कह रहे हैं बस राज्यसभा में वे नहीं जा पाए हैं वहां भी जाना चाहते हैं. भाजपा ने भी तपाक से कह दिया जैसा आदेश श्रीमान.
पर क्या श्रीमान मान जाएंगे और साधारण राज्यसभा सदस्य बन कर रह जाएंगे या सदस्य बन कर उपसभापति बनकर राज्यसभा का संचालन करने में राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति को सहयोग करेंगे. इसकी उम्मीद कम है क्योंकि उपसभापति तो वह बनवाते हैं, बनते नहीं हैं. तो क्या वह मोदी सरकार में मोदीजी जो पद देंगे उसी को स्वीकार कर लेंगे.
इस बीच उन्होंने अपने लोगों से यह बहस छिड़वा दी है कि उन्हें उपराष्ट्रपति बनया जा सकता है. यह कुछ ऐसी ही बहस है जैसी वे बार बार छिड़वाते रहते हैं कि वे विपक्षी खमें के लिये ‘‘पीएम मटेरियल’’ हैं. वैसे इस पर वह राजी हो सकते हैं क्योंकि प्रोटोकाल के हिसास से उपराष्ट्रपति का पद राष्ट्रपति सेे कम और प्रधानमंत्री से बड़ा होता है. साथ ही वह राज्यसभा का सभापति भी होता है. जहां राजनीतिक दावपेंच के लिये खूब गुंजाइश है. उपराष्टपति के लिये राज्यसभा का सदस्य होना भी जरूरी नही ं है.
लेकिन सवाल यह भी तो उठता है कि क्या भाजपा इतनी भोली है जो उन्हें उपराष्ट्रपति बना कर अपने हाथ खुद कटवाएगी.
इसलिये सब कुछ भविष्य के गर्त में है. इसलिये बस इंतजार करिये और चुपचाप देखते रहिये कि आगे आगे होता है क्या?