अल्पसंख्यक समस्या नहीं, बस समाधान का तरीका गलत. 30 मार्च.

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-03-30 03:15:20


अल्पसंख्यक समस्या नहीं, बस समाधान का तरीका गलत. 30 मार्च.

मानवीयता हमें सिखाती है कि जो कमजोर हैं उनकी मदद की जाए. यह दुनिया और खासकर हिंदुस्तानी सभ्यता और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है. दुनिया के अन्य देशों की तरह हिंदुस्तान के संविधान में भी भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों का जिक्र आया और उसके लिये विशेष प्रावधान किये गये. देश का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था. जिस धर्म को शिकायत थी उसने विभाजन से मिले हिस्से में पाकिस्तान बनाया और उसको इस्लामिक देश घोषित कर दिया और इस्लामी कानूनोें और मान्यताओं पर काम करना शुरू कर दिया. पर बचे हुए देश हिंदुस्तान ने ऐसा नहीं किया. उसने सभी धर्मो के लिये अपने दरवाजे खुले रखे और समान जगह दी. संविधान में इसका उल्लेख भी किया. लेकिन व्यवहार के स्तर पर दो बातें हुई. एक पाकिस्तान में तो दूसरी हिंदुस्तान में. पाकिस्तान में हिंदुओं सहित धार्मिक अल्पसंख्यक घटते गये. उन पर अत्याचार के समाचार आते रहे. उधर जिन मुसलमानों ने हिंदुस्तान को अपना घर माना उन्हें समान सुविधाएं तो मिली ही, अल्पसंख्यक होने के कारण विशेष लाभ भी मिले. क्योंकि यह माना गया कि अल्पसंख्यकों को खास सुविधा और लाभ देना हमेशा से जरूरी रहा है. उनकी जनसंख्या बढ़ी और देश के विकास में तथा विकास के लाभ में भागीदारी भी.
लेकिन समय के साथ इसमें राजनीति प्रवेश कर गई और मुसलमान वोट बैंक में तब्दील होते गये. राजनीतिक दलों ने उनके वोट अपनी पार्टी में दिलवाने के लिये कई ऐसी सुविधाएं दे दी जिसकी प्रतिक्रियाएं हुई. वे समानता के मूल अधिकार के खिलाफ भी थी तो एक प्रतिक्रिया में अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति भी शुरू हो गई और अलगाव की खाई बनने लगी. बात अल्पसंख्यकों की सुविधाओं  को बढ़ाने वाली संस्थाओं, अल्पसंख्यक आयोग आदि का विरोध होने लगा. अल्पसंख्यक विरोधी वोटों का ध्रुवीकरण भी होने लगा और उसके राजनीतिक परिणाम भी दिखने लगे.
बातें अदालतों में जाने लगी और ऐसी ही एक जनहित याचिका इसके लेकर सुप्रीम कोर्ट में पहुंची. उसमें कहा गया कि जिन राज्यों में जिनकी संख्या दस बताई गई हिंदू अल्पसंख्यक हैं उन्हें उन राज्यों में अल्पसंख्यक घोषित कर उन्हें अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाएं दी जाएं. हिंदू बहुल हिंदुस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक बात काफी लोगों के गले नहीं उतरी. पर इसका राजनीतिक पक्ष भी तो था जो चलता रहा.
इस बीच एक बात पर किसी का ध्यान नहीं गया कि अल्पसंख्यक घोषित करने को लेकर जो कानून बना था जिसके तहत केन्द्र सरकार ने मुसलमानों सहित अन्य कई धार्मिक समूहों को अल्पसंख्यक घोषित किया था वह कानून बनाने के लिहाज से बनाई गई विषयों की सूचियों में समवर्ती सूची में शामिल किया गया था. यानि अल्पसंख्यक घोषित करने के मामले में कानून बनाने का हक अकेले केन्द्र को ही नहीं राज्यों को भी था.
यही नहीं इसके राज्यों द्वारा किये गये उपयोग पर भी किसी का ध्यान नहीं गया था. तब केन्द्र सरकार ने अपने हलफनामें में इन दोनों का उदाहरण के साथ उल्लेख कर कई लोगों की आंखें खोल दी. केन्द्र ने कहा कि अल्पसंख्यक घोषित करने का हक केन्द्र के साथ साथ राज्यों को है. वे चाहें तो किसी धर्म को मानने वालों, जाति या वर्ग को अल्पसंख्यक घोषित कर सकते हैं. अल्पसंख्यक घोषित करने का आधार भाषाई और धार्मिक दोनों हो सकता है जिसकी व्यवस्था संविधान में है. कर्नाटक ने भाषाई आधार पर कई वर्गो को अल्पसंख्यक घोषित किया है तो महाराष्ट्र ने धर्म के आधार पर यहुदियों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया है.
यह बहस अभी जारी है. जब इस याचिका का निपटारा होगा तब का तब देखा जाएगा. हो सकता है ज्यादा संख्या में राज्य अपने हक का ज्यादा से ज्यादा उपयोग इस बीच करना शुरू कर दें.
पर हमारा बिंदु अलग है. जब कोई समूह जब बड़ी संख्या में हो जाए तो उसे इस विभाजन के विशेषाधिकार के दायरे से बाहर निकाल कर समानता के दायरे में लाना चाहिये. समाज को विभाजन की प्रवृति से बचाने के लिये और समरसता को बढ़ावा देने के लिये अल्पसंख्यकों की संख्या की लक्ष्मण रेखा तय की जानी चाहिये. संयुक्त राष्ट्रसंघ सहित कई देशों में यह सीमा है. कहीं तीन फीसदी की सीमा है तो कहीं पांच की. इस प्रकार विचार जरूर हो. एक लक्ष्मण रेखा अंतराष्ट्रीय प्रावधानों के अध्ययन के बाद तय की जाए.   

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