अनूठे कदमों से ही होगा बंगाल की हिंसा की समस्या का समाधान. 29 मार्च.

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-03-29 02:10:56


अनूठे कदमों से ही होगा बंगाल की हिंसा की समस्या का समाधान. 29 मार्च.

बंगाल की बीरभूमि जिले में हुई भयावह, लौमहर्षक, वीभत्स और अमानवीय घटना जिसमें आठ  लोगों को घरों में बंद कर जिंदा जलाकर मारडाला गया उसकी जड़ें दशकों तक बंगाल में चले कम्युनिस्ट शासन में कम्युनिस्ट पार्टी की कमेटियों द्वारा हर काम के लिये की जाने वाली वसूली में तलाशी जा सकती है. घर बनाना हो या कोई निमार्ण काम, गुमटी लगाना हो या ठेला, रेत खनन हो या पत्थर खनन, सभी के लिये कम्युनिस्ट पार्टी की समितियों को चंदा देना पड़ता था. इसे बाकी देश में भले ही अवैध वसूली कहते हों पर बंगाल  मंें उसे तोलाबाजी कहा जाता है. इसी से कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं का घर चलता था और पार्टी का काम भी. इस काम में हिंसा का प्रयोग भी जमकर होता था और हिंसक टकराव भी खूब होते थे. पर सब पर पार्टी की निगाह होती थी तो यह हिंसा और एक तरह की गुंडागर्दी सीमा से ज्यादा नहीं हो पाती थी. उसके बाद भी दूसरी गैर कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं को जिंदा जलाने की कई घटनाएं उन दिनों में हुई पर किसी में किसी को सजा नहीं मिली. क्योंकि पुलिस पार्टी के नियंत्रण में थी. हां कभी कभार प्रकरण दर्ज हो जाते थे जांच का नाटक होता था और बात आई गई होकर ठंडी पड़ जाती थी. वही बात कटमनी की थी. जिसे बंगाल में कटमनी कहते हैं उसे बाकी देश में दलाली कहते हैं. उससे छोटे बडे़े माकपा नेताओं का घर और पार्टी के बड़े खर्चे चलते थे. इके लिये भी खूब हिंसा और अत्याचार होते थे. बंगाल में कम्युनिस्टों के इसी प्रकार के अमानुषिक अत्याचारों से कांग्रेस के सहयोग से लड़कर ममता बनर्जी में ममता बनर्जी सत्ता में आई थी. पर जल्दी उसने कांग्रेस से छुटकारा पाकर अकेली तृणमूल कांग्रेस की सरकार बना ली और कम्युनिस्टों की समितियों को क्लबों में बदल दिया. इन क्लबों को सरकारी सहायता मिलती थी ये कई प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों और खेल के कार्यक्रमों का आयोजन करते थे. दुर्गाजी की झांकियां निकालते थे.
पर यह सब तो दिखावे के लिये था. वास्तविक काम तो चंदा वसूली था. हर काम के लिये चंदा वसूली होती थी और हर सरकारी सहायता में कटमनी चलती थी. इसी से क्लबों के सदस्यों से लेकर पदाधिकारियों का काम चलता था. धीरे धीरे इनमें गुंडों की एंट्री हुई और राजनीतिक नेताओं के घर पर कटमनी ये गुंडे पहुंचाने लगे. इन्हीं गुंडों को तृणमूल के कार्यकर्ताओं का नाम भी मिला. इनकी पुलिस से मिली भगत होती थी. उपर तक राजनीतिक पकड़ थी. इसलिये इनके सात खून माफ थे.
इन क्लबों का एक और काम था लोगों की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखना. पार्टी के गंुडे ऐसे गरीबों को फुटपाथ पर दुकान लगाना, गुमटी लगाना, फैरी लगाकर सामान बेचना, झुग्गी बनाना जैसे कामों से तोलाबाजी या अवैध वसूली तो करते ही थे जो तृणमूल कांग्रेस के सदस्य नहीं होते थे उन्हें ये काम नहीं करने देते थे. फिर एक बार तृणमूल के सदस्य न हो तो पैसा देकर काम चल भी जाता था पर तृणमूल के अलावा कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी का होना तो अपराध था. भाजपा का होना महाअपराध. इसलिये भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को तो मौत का सामना  तक करना पड़ता था. उनक शव घर में या पेड़ों पर टंगे पाए जाते थे.
बंगाल चुनाव में यह खूब देखा गया. चुनाव जीतने के बाद जो हिंसा हुई वह भी इसी प्रकार की हिंसा थी जिसमें करीब 50 से 70 हजार लोगों को जिनमें बच्चे और महिलाएं भी शामिल थे, भागकर पड़ौसी राज्य त्रिपुरा में शरण लेनी पड़ी थी. इन पर गैंगरेप जैसे अत्याचार तक हुए और हत्याएं भी हुई. पर कुछ नहीं हुआ. हां काफी जद्दोजहद के बाद कोलकाता हाईकोर्ट ने इसकी सीबीआई जांच के आदेश दिये.
बीरभूमि में हुई लोमहर्षक हिंसा भी इसी तोलाबाजी और अवैध वसूली का नतीजा है. इसमें अत्याचारी हो या पीडित वे सभी अपराधियों की श्रेणी में हैं. उनका काम अवैध वसूली था. यह अवैध वसूली के दो नेटवर्को की वर्चस्व की उसी प्रकार की लड़ाई थी जिसे देश गैंगवार  के नाम से जानता है.
पहले कई नेटवर्क बने. उसके बाद उनका फैलाव हुआ. कुछ ज्यादा बढ़े तो कुछ कम. लेकिन सबके हित टकरा रहे थे. पर जिसकी जितनी ताकत थी उसकी उतनी चली और कमजोरों को संतोष करना पड़ा. भोदू शेख का नेटवर्क सबसे बड़ा था. उसमे कई क्षेत्रों में सफलतापूर्वक हाथ आजमाए. काम फैला तो साथी तो बढ़े पर भोदू शेख को एक विश्वस्त साथी की जरूरत पड़ी तो उसने अपने भाई बाबर को चुना. जब बाबर ने अपने हिसाब से जमावट शुरू की तो यहीं से असंतोष पनपा क्योंकि कुछ की ताकत कम हुई. उन्होंने अलग काम जमाना शुरू किया तो टकराव बढ़ा. बाबर की हत्या कर दी गई और गैंगवार की तरह एक दूसरे के साथियों को मारने का सिलसिला चल निकला. उसी क्रम में भोदू शेख मारा गया तो बदले की आग में जलते उसके साथियों ने हत्या को लेकर जिन पर संदेह था उन्हें घेरने की कोशिश की. वे नहीं मिले तो उनके परिजनों को मारने पीटने के बाद घरों में बंद कर आग लगा दी. इसमें आठ लोग जिंदा जले. इनमें महिलाओ के साथ दो बच्चे थे. डर से कोई बचाव का नहीं आया. पुलिस की तो खैर मिलीभगत थी ही इसलिये उसके आने का सवाल ही नहीं उठा. जब सब करीब करीब स्वाहा हो गया तो खानापूर्ति के लिये पुलिस आई और आग बुझाने के लिये लोग भी आये.
इस सामूहिक हत्याकांड के बाद हंगाम बरपा है जो स्वाभाविक था. राजनीतिक दल जागे, मानवाधिकार आयोग,  महिला आयोग जैसी संस्थाएं दौड़ी. स्वयं कोलकता हाईकोर्ट आगे आया और उसने स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई कर जांच का काम सीबीआई को सौंपने का आदेश दे दिया. ममता सरकार ने भी खानापूर्ति के लिये जो एसआईटी बनाई थी उसे पर्याप्त नहीं माना गया. बात राष्ट्रपति शासन की भी की गई लेकिन इस दिशा में खास प्रगति दिखी नहीं.
आज भी यह सभी मानते हैं कि इस प्रकार के कदम बस फौरी तौर पर राहत पहुंचा सकते हैं और लोग अगली घटना के इंतजार तक देरअबेर शांत हो ही जाएंगे. क्योंकि जो हो रहा है वह समस्या की जड़ को समझ कर उसे समाप्त करने की इच्छा नहीं है. समस्या है पुलिस को राजनीतिक संरक्षण और उसके साथ उसका अपराधियों से मिला होना. इस प्रकार की समस्याएं कभी उत्तरप्रदेश और बिहार में भी थी. पंजाब ने तो भयावह आतंकवाद झेला है. इन सबका अंत राजनीतिक संरक्षण को खत्म कर प्रशासनिक सख्ती लाने के बाद ही हो पाया था. ममता बनर्जी जिस राजनीतिक माहौल को बनाकर मजबूत कर रही है उसमें यह संभव नजर नहीं आता कि पुलिस को राजनीतिक संरक्षण खत्म हो सकता है और गुंडों पर प्रशासनिक सख्ती हो सकती है. इसी लिये जानकार राष्ट्रपति शासन को भी कोई ठोस विकल्प नही मान रहे हैं. क्योंकि इसकी सीमा है. छह  माह से ज्यादा वह होगा नहीं. अगर अपवाद स्वरूप उसे साल भर खींच भी लिया तो भारी बहुमत से जीती ममता बनर्जी फिर सरकार संभालेगी और वही माहौल फिर बन जाएगा जिसकी आज भर्त्सना की जा रही है. उदाहरण के तौर  पर हम कह सकते हैं कि बिहार का बदनाम जंगल राज तभी खत्म हो पाया जब लालू यादव और उनकी पार्टी की सत्ता से विदाई हो गई. सत्ता के सूत्र नीतिश कुमार के हाथ में आए.
यह सब संभव नहीं लगता है इसलिये सभी लोगों को एक नये सोच के साथ ऐसा कदम सोचना होगा जिसमें कानून का उल्लंघन न हो और गुंडों और पुलिस का गठजोड़ भी टूट जाए. यह उपाय ममता बनर्जी के सत्ता में बने रहने के बावजूद प्रभावी बना रहे. क्योंकि ममता बनर्जी ने जो राजनीतिक समीकरण बना लिये हैं उनके चलते उनकी सत्ता से विदाई अभी तो दूर की कोड़ी ही नजर आ रही है.
 

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