आयेंगे तो योगीजी ही पर कमजोर पड़ जाएगी विकास की हुंकार- 28 फरवरी.

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-02-28 06:27:21


आयेंगे तो योगीजी ही पर कमजोर पड़ जाएगी विकास की हुंकार- 28 फरवरी.

उत्त्रप्रदेश में 291 सीटों के लिये पांच चरण में मतदान हो चुका है. 111 सीटों के लिये दो चरण में मतदान होना बाकी है.
अब दो दिलचस्प सवालों पर चर्चा की जा सकती है. एक पर तो सब चर्चा कर रहे हैं कि किसका पलड़ा भारी है और सत्ता में कौन आ रहा हैै?
दूसरा सवाल जिस पर चुनाव परिणाम बाद चर्चा होगी कि कौन से मुद्दों पर मतदाताओं ने वोट डाले?
मैं दोनों पर अभी बात करना चाहता हूं. वैसे परिणाम आने के बाद में दूसरे सवाल पर भी चर्चा करूंगा. क्योंकि तब पहला सवाल अपना महत्व खो चुका होगा इसलिये उस पर चर्चा अर्थहीन होने के कारण नहीं हो पाएगी.
पहले सवाल पर मेरा मानना है कि 291 सीटों के मतदान के बाद यह तय है कि मुकाबला कांटें का बना हुआ है. सपा और भाजपा अपने साथियों के साथ बेहद करीबी मुकाबले में बने हुए हैं. मेरी राय में पलड़ा भाजपा की तरफ झुका हुआ है क्योंकि भाजपा अकेली ही सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है. उसके साथी दल तो उसका वजन भर बढ़ा रहे हैं.
बाकी दो चरण की 111 सीटों के बारे में मेरा कहना है कि छठवें चरण में अकेली भाजपा 202 का जादुई आंकड़ा प्राप्त कर लेगी. इसके साथ ही उसका बहुमत साबित हो जाएगा. वह इस चरण मंें ही बहुमत से आगे निकल जाएगी. सातवे चरण मेें  तो वह बहुमत का आंकड़ा बढाएगी जो 10 से 50 के बीच होगा.
अब चर्चा दूसरे चरण की तो संक्षेप में कहना चाहूंगा कि विकास और राष्ट्रवाद के साथ साथ धर्म के मुद्दा फेल हो गया हैं. धर्म का मुद्दा हिंदुओं के लिये ही था जो उनके जातियों के आधार पर बंट जाने के कारण फेल हुआ है. मुसलमानों और ईसाइयों के लिये यह मुद्दा था ही नहीं  क्योंकि उन्हें भाजपा को हराना था. उनमें भी जातिया और अन्य भेदभाव है जिनका उल्लेख मंडल आयोग की रिपोर्ट में है. जिसके आधार पर मुसलमानों और ईसाइयों को भी पिछड़े वर्ग का लाभ मिलता है. पर इनमें राजनीकितक आधार पर कोई विभाजन नहीं है. इनमें 95 प्रतिशत से ज्यादा वोटिंग हुई है और 99 प्रतिशत ने सपा को वोट दिया है ताकि भाजपा को हराया जा सके. भाजपा हारेगी या नहीं यह और बात है पर वोटिंग करने वालों के लिये इस सवाल का कोई अर्थ नहीं है.
सारा वोटिंग जाति के आधार पर हुआ. जातियां वोटिंग के समय बंट गई. कुछ कम बंटी तो कुछ ज्यादा. इसलिये वोटिंग की गोलबंदी को सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया. कुछ ने इन्हें मंडल कमंडल का घालमेल कहा तो कुछ ने इसे ब्लेंडिंग और समन्वय जैसा नरम नाम देने में ही अपनी भलाई सझी. भाजपा कानून व्यवस्था पर पर खेली और उसे उसका लाभ भी मिला. कुछ सोशल इंजीनियरिंग भी की उसका भी लाभ मिला पर ज्यादा नहीं. उससे हटकर इस बार उसका जोर लाभार्थी तबके पर रहा. जो विकास का ही एक भाग था. विकास का नाम लेते समय वह लाभार्थियों का उल्लेख करने से नहीं चूकी. कारण यह था कि सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास तथा भ्रष्टाचार मुक्त क्रियान्वयन इसमें सभी धर्मो और वर्गो के गरीबों को खूब लाभ मिला. नेताओं और भ्रष्ट अफसरों की बहुत कम चली. राजीव गांधी ने कहा था कि केन्द्र से चले एक रूपये यानि सौ पैसे में से 15 पैसे ही लाभार्थी तक पहुंचते हैं पर मोदीजी की व्यवस्था में सौ में से सौ पैसे ,लाभार्थियों को बैंक खातों के माध्यम से मिले. इसमें आधे से ज्यादा लाभार्थियों ने ही इसका श्रेय मोदीजी को और उनकी सरकार को दिया. बाकी को राजनीतिक दल और भाजपा विरोधी यह समझाने में कामयाब रहे कि यह पैसा कौन मोदी जी अपनी जेब से दे रहे हैं. जनता  का पैसा है, सरकारी खजाने का पैसा है जो आपका हक है. आपका हक आपको मिला उसमें मोदीजी ने कौन सा अहसान किया है.
वहीं जो लाभार्थी थे उनमेें से अधिकांश भले ही मोदीजी और उनकी व्यवस्था का अहसान मानते थे. लेकिन एक बड़ी संख्या धर्म और जाति की जकड़न में ऐसी फंसी थी कि वह वोट देते समय मोदीजी को भूल गई और अपनी जाति और उसके नेताओं के इशारों पर नाचती नजर आई. इस कारण वोटों में भाजपा को उतना लाभ नहीं मिल पाया जितने की अपेक्षा थी.
एक और बड़ा कारण भाजपा के गले की हड्डी बनी वह यह थी कि जो पिछली विधानसभा में चुने गये भाजपा के विधायक थे उनमें से अधिकांश मानते थे कि वे अपनी दम पर जीत नहीं सकते. जिताएंगे तो मोदी ही पर उन्हें यकीन था कि उनकी बगावत से भाजपा को हरा जरूर सकते हैं. उनके यही तेवर देख भाजपा डर गई. जो बड़ी संख्या में प्रत्याशी बदलना चाहती थी वह नहीं कर पाई. इसका नतीजा यह निकाल की भाजपा समर्थकों ने उत्साह के साथ वोट नहीं डाले. वहीं कई ने तो भाजपा को सबक सिखाने के लिये वोट नहीं डाले और घर में बैठ गये.
वहीं अखिलेश यादव ने राजनीतिक चतुरता और परिपक्वता का परिचय दिया. जमकर सोशल इंजीनियरिंग की. उसका लाभ मिला. वहीं परिवारवाद का और अपराधियों का साथ देने का ठप्पा हटाने की कोशिश की. परिवार में और अपराधियों में कम से कम को टिकट दिये. उन्होंने मुस्लिम और यादव समर्थक का ठप्पा हटाने की कोशिश की इसके लिये यादव और मुस्लिम बहुल इलाकों तक में सोशल इंजीनियरिंग के तहत पिछड़ी जातियों को प्राथमिकता दी. इसलिये अखिलेश समर्थकों में उत्साह दिखाई दिया. उनके वोट भी अच्छी संख्या में सबसे पहले डल गये.
इन सबका ही नतीजा है कि सारे विश्लेषक इस बार पूर्वानुमान बताने से कतरा रहे हैं. बस कांटे की टक्कर बता कर चुप हो जाते हैं. हां कुछ झुकाव और बढ़त बताने का साहस कर पाते हैं. जो साफ बताने की कोशिश कर रहे हैं.
चुनाव परिणाम आने के बाद विकास का नारा लगाने वाली भाजपा को भी जातियों के ध्रवीकरण पर ज्यादा  ध्यान देना होगा. इससे जिस प्रकार से किसान कानूनों की वापसी से आर्थिक सुधारों को बड़ा झटका लगा है उसकी प्रकार विकास के इरादों को भी उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों से लगने वाला है. इस झटके पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा कि कौन जीतता है और कौन हारता है.

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